रविवार, 5 जून 2011

JANNAT KI HAWA



जन्नत  की  हवा 

मेरा  दर्द  समझ  सके  जो ,  मुझे वो  मसीहा  दे  दे .
मुझको  मेरे  इलाही , तू  वो  मुश्किलकुशा  दे  दे .

 मेरे दिल  में  क्या  छुपा  है , सब  जानता  है  फिर  क्यु ?
चुपचाप  यू  तमाशा , तू  देख  रहा  दे  दे .

न  जाने  तलाश  मेरी , कब  कैसे  पूरी  होगी .
मंजिल  तलक  में  पहुंचू , वो  राह  ज़रा  दे  दे .

जुम्बिश  नहीं  हाथो  में , है  जिस्म  भी  शकिश्ता.
नज़रे  थकी  हुई  है , अब  तो  आसरा  तेरा  दे  दे .

टूटी  हुई  है  लाठी , पहुंचूंगा  तुझ  तक  कैसे ?
इतना  नसीब  में  तू , चलना  तो  ज़रा  दे  दे .

देता  है  छप्पर  फाड़कर , में  ने  सुना  है  सब  से .
टूटी  हुई  चाट  है  मेरी , पहले  साया  तो  ज़रा  दे  दे ,

रूदाद  मेरी  सुनता  कोई  नहीं  जहां  में ,
ऐसा  कोई  एक  बंदा , तेरा  तो  यहाँ  दे  दे .

अब  तेरे  सिवा  किसी  पर , भरोसा  नहीं  है  मेरा .
अब  थाम  ले  मुझे  तू , सहारा  तो  ज़रा  दे  दे .

जंगल  में , बयाबां में , मजधार  में , तुफा  में .
दर  दर  की  ठोकरों  का , अब  तो  तू  सिला  दे  दे .

तेरे  सिवा  यहाँ  पर , कोई  दूजा  खुदा  नहीं  है .
तुझ  पर  ही  अकीदा   है , मेरा  ए खुदा  दे  दे .

जाने  कब  सुनेगा , आरिफ  की  दुआ  अल्लाह .
ज्यादा  नहीं  थोड़ी  सी , तेरी  जन्नत  की  हवा  दे दे .

पंडित  मुस्तफा  आरिफ